उत्तराखंड की प्राचीन जनजाति कोल किरात खश ओर भोटिया
देवभूमि उत्तराखंड सदियों पूर्व से ही मानव आवास के लिए उपयोग में आती रही है, यहां सुंदर में घाटी, प्राकृतिक वनस्पति, जल से भरपूर नदियां शांतिप्रिय वातावरण आदि मानव को अपना आवास बनाने के लिए आकर्षित करती रही होगी, प्रजातियां रिग वैदिक काल से ही उत्तराखंड में निवास करती आ रही है ऋग्वेद में अनार्य के लिए जिन शब्दों का उल्लेख किया गया है उनकी सभ्यता उत्तराखंड की अनेक पूरा प्रजातियों से मिलती है।
कोल उत्तराखंड की सबसे पुरानी प्रजाति है
कोल प्रजाति भारतवर्ष के बहुत सारे क्षेत्रों में अपने अस्तित्व को बनाए हुए है। कोल प्रजाति को उत्तराखंड की सर्वाधिक पूरा प्रजाति माना जाता है, शिव प्रसाद डबराल के अनुसार, उत्तराखंड अनेक स्थानों नदी नालों गांव के नामों पर कोल भाषा के प्रत्यय दा,था, नदी आदि का प्रभाव वर्तमान में भी देखने के लिए मिलता है।
उत्तराखंड की गांव नदी नालों में ही केवल कोल भाषा का प्रभाव दृष्टिकोण क्या नहीं होता बल्कि यहां की प्रमुख बोलियों यथा सोनी एवं गढ़वाली बोलियों में भी दृष्टिगोचर होता है। अतिरिक्त उत्तराखंड की संस्कृति मैं भी कोल संस्कृति का प्रभाव देखा जा सकता है।साहित्य से ज्ञात होता है कि कोल, आर्यों की विपरीत शारीरिक विशेषता वाले थे देखने में ग्रुप एवं भद्दे रखते थे, कालिदास ने अपनी कृतियों में उनकी शारीरिक विशेषताओं का वर्णन किया है। पूरा साहित्य ग्रंथों में कोल का वर्णन मुंड एवं सबर नाम से भी मिलता है। कोल सामान्यता छोटे कद व चपटी नाक मोटे होंठ घुंघराले बाल वाले होते हैं। उनकी उपयुक्त शारीरिक विशेषताओं से उनकी क्षमता ऋग्वेद में उल्लेखित नारियों से की जा सकती है। वर्तमान समय में भी उत्तराखंड में कोल प्रजाति के वंशजों का अस्तित्व माना जाता है। इतिहासकार एवं विद्वान उत्तराखंड में निवास कर रही निम्न जनजातियों को ही कोल मानते हैं।
कोल का प्रमुख व्यवसाय कृषि था, वे नदी घाटियों तथा डालू पहाड़ियों में कृषि कार्य करते थे बिगड़े ही मेहनत होते थे, धान गन्ना कपास साग सब्जियां तथा फल इत्यादि कृषि उपज प्रमुख थी। पशु पक्षी का भी पालन पोषण करते थे, नृत्य संगीत मदिरापान कोलो के जीवन का अभिन्न अंग था। कुमार कुमारी उनकी सामाजिक जीवन का प्रमुख अंग था। संभवत इस प्रथा का प्रारंभ भूटिया आर्थिक प्रजाति के प्रभाव से हुआ था। कोल प्रजाति सेंधव सभ्यता से संबंधित थे। ऋग्वेद में नारियों के संबंध में जो भी वर्णन मिलता है उसका संबंध कोल प्रजाति में भी दृष्टिगोचर होता है। सिंधु सभ्यता के अवशोषण के पश्चात वहां के निवासी अपनी सुरक्षा के लिए दुर्गम पढ़ गाड़ियों जंगली क्षेत्रों में आकर बस गए यही कारण है कि कोल तथा सेंधव सभ्यता के निवासी को सामाजिक प्रथा में भी समानता दिखाई देती है। कोल प्रजाति सिंधु सभ्यता की तरह खुले रुप में मृत शरीर को फेंक देते थे।अनेक इतिहासकारों ने विष्णु के 10 अवतार मत्स्य कूर्म और वराह व नर्सिंग की कल्पना की देन कोल जाति से की है।
किरात उत्तराखंड की दूसरी सबसे पुरानी प्रजाति
किरात प्रजाति भी उत्तराखंड की प्रमुख पूरा प्रजातियों में रही है जातियों का वर्णन, पूरा साहित्य एवं अभिलेखों विदेशी विवरण के द्वारा प्राप्त होता है, इस प्रजाति के अन्य प्रमुख नाम हैं कीर किन्नर, और किरपुरुष भी प्रचलित है, स्कंद पुराण के केदारखंड में किरतो को भील्ल शब्द से संबोधित किया है।
उत्तराखंड के प्रसिद्ध इतिहासकार राहुल संस्कृत का मत है कि केदारखंड खस मंडल बनने से पूर्व किरात मंडलों में से एक था। कीरातों से पूर्व अखंड में कोल जाति का वर्चस्व था, किरतो ने कोलो के वैवाहिक संबंध स्थापित करके अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। किरात ने कोलो को उनके स्थानीय आवास से खदेड़ दिया था।
वर्तमान समय में उत्तराखंड में किरात के वंशज तराई भाबर, मुंसियारी, कपकोट बागेश्वर, टनकपुर तथा अस्कोट से काली नदी के किनारे तथा कर्णप्रयाग से द्वाराहाट घाटी में निवास कर रहे हैं।
किरात को मंगोल प्रजाति से संबंधित माना जाता है, प्रजाति के समान उन्नत चपटी नाकर तथा चपटी आंख, दाढ़ी मूछ गेहूं रंग का हष्ट पुष्ट कद शरीर आदि शारीरिक विशेषता समान है। किरात मुख्य रूप से खानाबदोश जीवन जीते थे और पशु पालन करते थे, वे ऋतु के अनुसार अपना पशुओं का वास बदलते थे, इनके द्वारा पाले जाने वाले पशुओं में भेड़ बकरियां प्रमुख थी। इन पशुओं से प्राप्त ऊऊं से जीवन व्यतीत करते थे, इन प्रजातियों में संयुक्त परिवार व्यवस्था पर चली थी, सामाजिक प्रथा की कठोरता का था, यह लोग जादू टोने में विश्वास करते थे।
उत्तराखंड की सबसे बड़ी तीसरी बड़ी प्रजाति खस
खश उत्तराखंड की पूर्व प्रजातियों में एक महत्वपूर्ण पड़ जाती है, खश के वंशज वर्तमान समय में उत्तराखंड में निवास कर रहे हैं परंतु खस ने किरात को पराजित करके को यहां से भगा दिया, महाभारत मनुस्मृति, मुद्राराक्षस, चरक संहिता जैसे भारतीय ग्रंथों में खासजनजाति का उल्लेख मिलता है, अलबरूनी ने भी इस प्रजाति का उल्लेख किया है, महाभारत सभा में ख़श के संबंध में उल्लेख मिला है की अर्जुन ने उत्तर दिग्विजय समय खस पर विजय पाई यह खस युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ ब्रह्म कमल का पुष्प भेट में लाएं। महाभारत से ज्ञात होता है कि खस महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े। उपयुक्त ग्रंथ के अनुसार यशोवर्मन के खुजराहो लेख अशोक चल के संवाद लक्ष्य शिखरी खस दो राजा का उल्लेख मिला हैइन अभिलेख में स्पष्ट होता है कि गुप्त काल की 12 वीं सदी में उत्तराखंड तथा पश्चिमी नेपाल डोटी को भारतवर्ष के अन्य स्थानों के लोग खस देश के रूप में जानते थे।जम्मू कश्मीर में भी खस जाती रहती है।खस का जीवन बहुत ही सरल था उनमें जाति भेद का प्रचलन नहीं था उनको कोल व किरात से भी अच्छे संबंध थे। 18 सो 85 में ब्रिटिश युगो में खस को शूद्र वर्ग में शामिल किया गया, इस जाति में बहुत सारी प्रथाएं प्रचलित थी जैसे घर जमाई, इस प्रथा में लड़की का पति लड़की के घर में ही रहता था,
जेंठो प्रथा
इस प्रथा में पारिवारिक संपत्ति का सबसे बड़ा भाई अन्य भाई की अपेक्षा ज्यादा संपत्ति प्राप्त करता था।
झतेला
इस प्रथा में कोई स्त्री दूसरी व्यक्ति से विवाह कल दे उसके पूर्व पति से उत्पन्न संतान को झतेला कहा जाता था।
टेकुवा प्रथा
खस प्रजाति में प्रचलित प्रथा में यह प्रथा बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ता है इच्छा के अनुसार कोई विधवा वैध या अवैध रूप से किसी भी पुरुष को अपने घर में रख सकती थी, वर्तमान पति से उत्पन्न संतान को पैतृक संपत्ति में पूर्ण हिस्सा मिलता था।